Wednesday 10 November 2010

ग़ुरबत का मकां

नींव बिन जो हवाओं में खड़ा है
मेरी ग़ुरबत के मकां का हौसला है।

टूटे हैं इमदाद के दरवाज़े लेकिन
मेहनत का साफ़, इक पर्दा लगा है।

सीढियों पर शौक की काई जमी है
छत पे यारो सब्र का तकिया रखा है।

आंसुओं से भीगी दीवारे -रसोई
पर शिकम के खेत में, सूखा पड़ा है।

बेटी की शादी के खातिर धन नहीं है
इसलिये अब बेटी ही, बेटा बना है।

सुख से सदियों से अदावत है हमारी
ग़म ही अब हम लोगों का सच्चा ख़ुदा है।

सैकड़ों महलों को गो हमने बनाया
पर हमारा घर, ज़मीनें ढूंढ्ता है।

बंद हैं अब हुस्न की घड़ियां शयन में
इश्क़ के बिस्तर का चादर फ़टा है।

हां अंधेरा पसरा है आंगन के सर पे
रौशनी का ज़ुल्म, दानी से ख़फ़ा है।