नींव बिन जो हवाओं में खड़ा है
मेरी ग़ुरबत के मकां का हौसला है।
टूटे हैं इमदाद के दरवाज़े लेकिन
मेहनत का साफ़, इक पर्दा लगा है।
सीढियों पर शौक की काई जमी है
छत पे यारो सब्र का तकिया रखा है।
आंसुओं से भीगी दीवारे -रसोई
पर शिकम के खेत में, सूखा पड़ा है।
बेटी की शादी के खातिर धन नहीं है
इसलिये अब बेटी ही, बेटा बना है।
सुख से सदियों से अदावत है हमारी
ग़म ही अब हम लोगों का सच्चा ख़ुदा है।
सैकड़ों महलों को गो हमने बनाया
पर हमारा घर, ज़मीनें ढूंढ्ता है।
बंद हैं अब हुस्न की घड़ियां शयन में
इश्क़ के बिस्तर का चादर फ़टा है।
हां अंधेरा पसरा है आंगन के सर पे
रौशनी का ज़ुल्म, दानी से ख़फ़ा है।
gustaakhimaf
Wednesday, 10 November 2010
Saturday, 30 October 2010
आशिक़ को नसीहत
दिल के दीवारों की, आशिक़ को नसीहत,
इश्क़ के सीमेन्ट से ढ्ह जाये ना छत।
रेत भी गमगीं नदी का हो तो अच्छा,
सुख का दरिया करता है अक्सर बग़ावत।
सब्र का सरिया बिछाना दिल के छत पे,
छड़, हवस की कर न पायेगी हिफ़ाज़त
प्लास्टर विश्वास के रज का लगा हो,
खिड़कियों के हुस्न से टपके शराफ़त।
सारे दरवाज़े,मिजाज़ो से हों नाज़ुक,
कुर्सियों के बेतों से झलके नफ़ासत।
कमरों में ताला सुकूं का ही जड़ा हो,
फ़र्श लिखता हो मदद की ही इबारत।
दोस्ती की धूप हो,आंगन के लब पे,
गली में महफ़ूज़ हो चश्मे-मुहब्बत।
सीढियों की धोखेबाज़ी, बे-फ़लक हो,
दीन के रंगों से खिलती हो इमारत।
मेहनत का हो धुंआ दानी किचन में,
रोटियों की जंग में, टूटे न वहदत। वहदत--एकता
इश्क़ के सीमेन्ट से ढ्ह जाये ना छत।
रेत भी गमगीं नदी का हो तो अच्छा,
सुख का दरिया करता है अक्सर बग़ावत।
सब्र का सरिया बिछाना दिल के छत पे,
छड़, हवस की कर न पायेगी हिफ़ाज़त
प्लास्टर विश्वास के रज का लगा हो,
खिड़कियों के हुस्न से टपके शराफ़त।
सारे दरवाज़े,मिजाज़ो से हों नाज़ुक,
कुर्सियों के बेतों से झलके नफ़ासत।
कमरों में ताला सुकूं का ही जड़ा हो,
फ़र्श लिखता हो मदद की ही इबारत।
दोस्ती की धूप हो,आंगन के लब पे,
गली में महफ़ूज़ हो चश्मे-मुहब्बत।
सीढियों की धोखेबाज़ी, बे-फ़लक हो,
दीन के रंगों से खिलती हो इमारत।
मेहनत का हो धुंआ दानी किचन में,
रोटियों की जंग में, टूटे न वहदत। वहदत--एकता
Saturday, 23 October 2010
नई नौकरी
इस भीड़ भरी ट्रेन में कोई नहीं मेरा,
तन्हाई के बिस्तर में तसव्वुर का बसेरा।
रफ़्तार बहुत तेज़ है बैठा भी न जाता,
मजबूरी के चादर में ग़मे-जिस्म लपेटा।
मुझको नहीं मालूम कहां है मेरी मन्ज़िल,
कब ये ख़ौफ़ज़दा रस्ता सख़ावत से हटेगा। ( सख़ावत- दानशीलता)
मै एक नई नौकरी करने चला परदेश,
माज़ी के ग़मों का जहां होगा न बखेड़ा। (माज़ी - बीता समय)
मग़रूर था उस फ़ेक्टरी का दिल जहां था मैं,
सम्मान नये स्थान में महफ़ूज़ रहेगा।
हम नौकरों को झेलना ही पड़ता है ये सब,
मालिक के बराबर कहां ठहराव मिलेगा।
अपनों से विदा ले के चला हूं मैं सफ़र में,
अब हश्र तलक अपनों को ये दिल न दिखेगा।
सच्चाई दिखानी है वहां अपने ज़मीं की,
अब झूठ का दरिया वहां पानी भरेगा।
किस्मत का बदलना मेरे बस में नहीं दानी,
भगवान ही दानी की ख़ता माफ़ करेगा।
तन्हाई के बिस्तर में तसव्वुर का बसेरा।
रफ़्तार बहुत तेज़ है बैठा भी न जाता,
मजबूरी के चादर में ग़मे-जिस्म लपेटा।
मुझको नहीं मालूम कहां है मेरी मन्ज़िल,
कब ये ख़ौफ़ज़दा रस्ता सख़ावत से हटेगा। ( सख़ावत- दानशीलता)
मै एक नई नौकरी करने चला परदेश,
माज़ी के ग़मों का जहां होगा न बखेड़ा। (माज़ी - बीता समय)
मग़रूर था उस फ़ेक्टरी का दिल जहां था मैं,
सम्मान नये स्थान में महफ़ूज़ रहेगा।
हम नौकरों को झेलना ही पड़ता है ये सब,
मालिक के बराबर कहां ठहराव मिलेगा।
अपनों से विदा ले के चला हूं मैं सफ़र में,
अब हश्र तलक अपनों को ये दिल न दिखेगा।
सच्चाई दिखानी है वहां अपने ज़मीं की,
अब झूठ का दरिया वहां पानी भरेगा।
किस्मत का बदलना मेरे बस में नहीं दानी,
भगवान ही दानी की ख़ता माफ़ करेगा।
Saturday, 16 October 2010
मुसाफ़िर
बंद राहों के सफ़र का मैं मुसाफ़िर,
पैरों में बेहोशी, पर उन्मादी है सिर।
तन में ज़ख़्मों का दुशाला इक फ़टा सा,
चप्पलों में ख़ून का दरिया है हाज़िर।
सेहरा है दीनो-ईमां का गले में,
मेरा ही ख़ूं देख दुनिया समझे काफ़िर।
सब्र का झंडा गड़ा था दिल के छत पे ,
लड़ता तूफ़ाने-हवस से कैसे आख़िर।
अब नहीं पढती किताबे-दिल को लैला,
ग़मे-मजनू का बने अब कौन मुख़बिर।
बैठ्के -दिल में रसोई का धुआं है ,
इक मुकदमा आग का, आंगन पे दाइर।
तन के दरवाज़ों को कचरों की अता,
मन की गलियों में नही दिखता मुहर्रिर।
बेवफ़ाई के महल के, सुख भी नाज़ुक,
शौक का सीमेन्ट सदियों से शातिर।
बीवी का दिल, ग़ै्रों के पैसों पे कुर्बां,
बात ये कैसे करूं दुनिया को ज़ाहिर।
उलझनों की बेड़ियां माथे पे दानी,
मुश्किलों का कारवां घर में मुनाज़िर।
अता-देन ,मुनाज़िर- आंखों के सामने। मुख़बिर--ख़बर देने वला।
पैरों में बेहोशी, पर उन्मादी है सिर।
तन में ज़ख़्मों का दुशाला इक फ़टा सा,
चप्पलों में ख़ून का दरिया है हाज़िर।
सेहरा है दीनो-ईमां का गले में,
मेरा ही ख़ूं देख दुनिया समझे काफ़िर।
सब्र का झंडा गड़ा था दिल के छत पे ,
लड़ता तूफ़ाने-हवस से कैसे आख़िर।
अब नहीं पढती किताबे-दिल को लैला,
ग़मे-मजनू का बने अब कौन मुख़बिर।
बैठ्के -दिल में रसोई का धुआं है ,
इक मुकदमा आग का, आंगन पे दाइर।
तन के दरवाज़ों को कचरों की अता,
मन की गलियों में नही दिखता मुहर्रिर।
बेवफ़ाई के महल के, सुख भी नाज़ुक,
शौक का सीमेन्ट सदियों से शातिर।
बीवी का दिल, ग़ै्रों के पैसों पे कुर्बां,
बात ये कैसे करूं दुनिया को ज़ाहिर।
उलझनों की बेड़ियां माथे पे दानी,
मुश्किलों का कारवां घर में मुनाज़िर।
अता-देन ,मुनाज़िर- आंखों के सामने। मुख़बिर--ख़बर देने वला।
Saturday, 9 October 2010
इश्क़ का मंदिर
ख़ुदगरज़ तेरी मुहब्बत की हवा है,
रोज़ जिसको छत बदलने में मज़ा है।
सैकड़ों मशगूल हैं सजदे में तेरे,
तू जवानी के मजारों की ख़ुदा है।
मैं पुजारी ,इश्क़ के मंदिर का तेरा,
देवी दर्शन पर मुझे मिल ना सका है।
आंधियों के क़त्ल का ऐलान है अब,
सर, चराग़ों की जमानत ले चुका है।
दिल के भीतर सैकड़ों दीवारें हैं अब,
रिश्तों का बाज़ार पैसों पर टिका है।
है ज़रूरी पैसा जीने के लिये पर,
इश्क़ का गुल्लक भरोसों से भरा है।
तुम भी तडफ़ोगी वफ़ा पाने किसी की,
एक हुस्ने-बेवफ़ा को बद्दुआ है।
सच्चा आशिक़ सब्र के सागर में रहता,
तू किनारों के हवस में मुब्तिला है।
आगे राहे-इश्क़ में बढना तभी ,गर
दानी कुरबानी का दिल में हौसला है।
रोज़ जिसको छत बदलने में मज़ा है।
सैकड़ों मशगूल हैं सजदे में तेरे,
तू जवानी के मजारों की ख़ुदा है।
मैं पुजारी ,इश्क़ के मंदिर का तेरा,
देवी दर्शन पर मुझे मिल ना सका है।
आंधियों के क़त्ल का ऐलान है अब,
सर, चराग़ों की जमानत ले चुका है।
दिल के भीतर सैकड़ों दीवारें हैं अब,
रिश्तों का बाज़ार पैसों पर टिका है।
है ज़रूरी पैसा जीने के लिये पर,
इश्क़ का गुल्लक भरोसों से भरा है।
तुम भी तडफ़ोगी वफ़ा पाने किसी की,
एक हुस्ने-बेवफ़ा को बद्दुआ है।
सच्चा आशिक़ सब्र के सागर में रहता,
तू किनारों के हवस में मुब्तिला है।
आगे राहे-इश्क़ में बढना तभी ,गर
दानी कुरबानी का दिल में हौसला है।
Saturday, 2 October 2010
न्याय की छत
दिल के घर में हर तरफ़ दीवार है,
जो अहम के कीलों से गुलज़ार है।
तौल कर रिश्ते निभाये जाते यहां,
घर के कोने कोने में बाज़ार है।
अब सुकूं की कश्तियां मिलती नहीं,
बस हवस की बाहों में पतवार है।
ख़ून से लबरेज़ है आंगन का मन,
जंगे-सरहद घर में गो साकार है।
थम चुके विश्वास के पखें यहां,
धोखेबाज़ी आंखों का ष्रिंगार है।
ज़ुल्म के तूफ़ानों से कमरा भरा,
सिसकियां ही ख़ुशियों का आधार है।
हंस रहा है लालची बैठका का फ़र्श,
कुर्सियों की सोच में हथियार है।
मुल्क का फ़ानूस गिरने वाला है,
हां सियासत की फ़िज़ा गद्दार है।
सर के बालों की चमक बढने लगी,
पेट की थाली में भ्रष्टाचार है।
न्याय की छत की छड़ें जर्जर हुईं,
चंद सिक्कों पे टिका संसार है।
टूटी हैं दानी मदद की खिड़कियां,
दरे-दिल को आंसुओं से प्यार है।
जो अहम के कीलों से गुलज़ार है।
तौल कर रिश्ते निभाये जाते यहां,
घर के कोने कोने में बाज़ार है।
अब सुकूं की कश्तियां मिलती नहीं,
बस हवस की बाहों में पतवार है।
ख़ून से लबरेज़ है आंगन का मन,
जंगे-सरहद घर में गो साकार है।
थम चुके विश्वास के पखें यहां,
धोखेबाज़ी आंखों का ष्रिंगार है।
ज़ुल्म के तूफ़ानों से कमरा भरा,
सिसकियां ही ख़ुशियों का आधार है।
हंस रहा है लालची बैठका का फ़र्श,
कुर्सियों की सोच में हथियार है।
मुल्क का फ़ानूस गिरने वाला है,
हां सियासत की फ़िज़ा गद्दार है।
सर के बालों की चमक बढने लगी,
पेट की थाली में भ्रष्टाचार है।
न्याय की छत की छड़ें जर्जर हुईं,
चंद सिक्कों पे टिका संसार है।
टूटी हैं दानी मदद की खिड़कियां,
दरे-दिल को आंसुओं से प्यार है।
Saturday, 25 September 2010
हंगामे-इश्क़।
सर झुकाता ही नहीं हंगामे- इश्क़,
इसलिये सबसे उपर है नामे-इश्क़।
है नहीं सारा ज़माना रिंद पर,
कौन है जो ना पिया हो जामे-इश्क़।
इश्क़ में कुर्बानी पहली शर्त है,
इक ज़माने से यही अन्जामे-इश्क़।
दुश्मनों से भी गले दिल से मिलो,
सारी दुनिया को यही पैग़ामे-इश्क़।
फिर खड़ी है चौक पे वो बेवफ़ा,
फिर करेगी शहर में नीलामे-इश्क़।
जिसको पहले प्यार का गुल समझा था,
निकली अहले-शहर की गुलफ़ामे-इश्क़।
हुस्न के मंदिर में घुसने ना मिला,
ये अता है ये नहीं नाकामे-इश्क़।
बस तड़फ़ बेचैनी रुसवाई यही,
मजनू को है लैला का इनआमे-इश्क़।
तर-ब-तर हो जाता हूं बारिश में मैं,
दानी का बेसाया क्यूं है बामे-इश्क़।
हंगाम--पल,समय। रिंद-शराबी। अहले-शहरकी-शहरवालों की।
अता- देन। बामे-इश्क़- इश्क़ का छत।
इसलिये सबसे उपर है नामे-इश्क़।
है नहीं सारा ज़माना रिंद पर,
कौन है जो ना पिया हो जामे-इश्क़।
इश्क़ में कुर्बानी पहली शर्त है,
इक ज़माने से यही अन्जामे-इश्क़।
दुश्मनों से भी गले दिल से मिलो,
सारी दुनिया को यही पैग़ामे-इश्क़।
फिर खड़ी है चौक पे वो बेवफ़ा,
फिर करेगी शहर में नीलामे-इश्क़।
जिसको पहले प्यार का गुल समझा था,
निकली अहले-शहर की गुलफ़ामे-इश्क़।
हुस्न के मंदिर में घुसने ना मिला,
ये अता है ये नहीं नाकामे-इश्क़।
बस तड़फ़ बेचैनी रुसवाई यही,
मजनू को है लैला का इनआमे-इश्क़।
तर-ब-तर हो जाता हूं बारिश में मैं,
दानी का बेसाया क्यूं है बामे-इश्क़।
हंगाम--पल,समय। रिंद-शराबी। अहले-शहरकी-शहरवालों की।
अता- देन। बामे-इश्क़- इश्क़ का छत।
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