Saturday 24 July 2010

राम की नगरी

ज़िन्दगी मजबूरियों की दास्तां है,
साथ ख़ुशियों के ग़मों का कारवां है।
है उजाला अब चराग़े-ग़म से घर में,
आंधियों के बेरहम लब बेज़ुबां है।
क्यूं अदालत, क़ातिलों को चाहती है,
न्याय के चुल्हों में पैसों का धुआं है।
झोपड़ी मजबूत है मेरी वफ़ा की,
बेवफ़ाई के महल में छत कहां है।
दर मकाने-इश्क़ का टूटा हुआ है,
नींव के भीतर अहम की आंधियां है।
तुम हवस के आसमां में फ़ंस चुकी हो,
मेरे छत पे सब्र की सौ सीढियां है।
फ़िक्र दुनिया की करें क्यूं,ज़िन्दगी की,
ग़म-ख़ुशी जब तेरे मेरे दरमियां है।
है समन्दर की अदाओं से सुकूं अब,
साहिलों के हुस्न में वो रस कहां है।
राम की नगरी में रहने वालों के घर,
आज क्यूं रावण के पैरों के निशां हैं।

3 comments:

  1. राम की नगरी में रहने वालों के घर,
    आज क्यूं रावण के पैरों के निशां हैं

    इस शेर का तो जवाब नहीं डॉक्टर ! क्या द्वन्द्व है इसमें ...।

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  2. दर मकाने-इश्क़ का टूटा हुआ है,
    नींव के भीतर अहम की आंधियां है।
    तुम हवस के आसमां में फ़ंस चुकी हो,
    मेरे छत पे सब्र की सौ सीढियां है।
    फ़िक्र दुनिया की करें क्यूं,ज़िन्दगी की,
    ग़म-ख़ुशी जब तेरे मेरे दरमियां है।
    है समन्दर की अदाओं से सुकूं अब,
    साहिलों के हुस्न में वो रस कहां है।
    Uffffff..kya kahun Sanjay jee..behadd umda sher kahe hain aapne apni ghazal main.

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  3. शरद भाई व नीलम जी को हौसला अफ़ज़ाई के लिये धन्यवाद।

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