ज़िन्दगी इक मशीन बन चुकी है,
बेबसी की ज़मीन हो चली है।
काम का बोझ बढते ही जा रहा,
पीठ की छाती फटने सी लगी है।
सच का छप्पर चटकने को हुआ,
झूठ की नींव पुख़ता हो रही है।
लैला मजनूं का कारवां ख़ामोश,
ये हवस की सदाओं की सदी है।
पेड़ उगने लगे हैं पैसों के,
पर मदद की जड़ें उखड़ गई हैं।
गांव के खेत तन्हा से खड़े हैं,
कारख़ानों में महफ़िलें सजी हैं।
आसमां ख़ुद ही झुकना चाहता ,पर
कोशिशों की ज़ुबां दबी दबी हैं।
अब सियासत तो धर्म का बाज़ार,
इक तवायफ़ सी बिकने को खड़ी है।
महलों में ज़ोर ज़ुल्म के अरदास,
शांति के मद में दानी झोपड़ी है।
लैला मजनूं का कारवां, कुछ नये किस्म का प्रयोग है.
ReplyDelete... bahut sundar !!!
ReplyDeleteग्राम चौपाल में तकनीकी सुधार की वजह से आप नहीं पहुँच पा रहें है.असुविधा के खेद प्रकट करता हूँ .आपसे क्षमा प्रार्थी हूँ .वैसे भी आज पर्युषण पर्व का शुभारम्भ हुआ है ,इस नाते भी पिछले 365 दिनों में जाने-अनजाने में हुई किसी भूल या गलती से यदि आपकी भावना को ठेस पंहुचीं हो तो कृपा-पूर्वक क्षमा करने का कष्ट करेंगें .आभार
ReplyDeleteक्षमा वीरस्य भूषणं .
राहुल जी, उदय जी और अशोक बजाज जी को ब्लाग में पधारने और हौसला अफ़ज़ाई करने के लिये तहे-दिल शुक्रिया । आप सबकी नज़रे-इनायत का सदा तलबगार रहूंगा।
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