Saturday 28 August 2010

मुजरिम हूं मै।

बहारों की अदालत का मैं मुजरिम हूं,
वफ़ा की बेड़ियों से जकड़ा मौसम हूं।

कभी वादों के दरिया का शराबी हूं,
कभी कसमों के मयख़ानों का मातम हूं।

तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के मद का कभी ख़म हूं,
कभी मैं व्होठों के गुलशन का शबनम हुं।

तसव्वुर में ख़िज़ां के धूल का बादल, (तसव्वुर- यादें)
तुम्हारे झूठ के बारिश से पुरनम हूं।

तुम्हारी दीद से मेरी सहर होती, (दीद-- दर्शन)
घटाओं से घिरा वरना मैं अन्जुम हूं। ( अन्जुम-- तारा)

समंदर की शराफ़त की ज़मानत भी,
किनारों पर दग़ाबाज़ी का परचम हूं।

उजाले मेरी सांसों के ख़मोशी हैं,
अंधेरों की गली का मैं तरन्नुम हूं।

खिलौने बेच कर फुटपाथ पे ज़िन्दा,
अमीरों की हिक़ारत से मैं क़ायम हूं।

ग़ुनाहे इश्क़ का दानी सिपाही हूं ,
ख़ुदाई शहरे-मज़हब का मैं आदम हूं।

2 comments:

  1. शुक्रिया ! ग़ज़ल पसंद आये.
    चलिए अब शायर डा. संजय से भी मुलाक़ात हो गयी.

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  2. सुलभ जी का इस ब्लाग में स्वागत और हौसला अफ़ज़ाई के लिये
    धन्यवाद। यूं ही गाहे-ब-गाहे इस ब्लाग पर आपकी नज़रे-इनायत
    रही तो दिल को करार मिलता रहेगा।

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