Saturday 4 September 2010

दिल के दरों को

खटखटाया ना करो दिल के दरों को,
मैं खुला रखता हूं मन की खिड़कियों को।

फिर दरख़्ते प्यार में घुन लग रहा तुम,
काट डालो बेरुख़ी के डालियों को।

गर बदलनी दुश्मनी को दोस्ती में,
तो मिटा डालो दिलों के सरहदों को।

बढ गई है ग़म की परछाई ज़मीं में,
धूप का दीमक लगा ,सुख के जड़ों को।

मैं मकाने-इश्क़ के बाहर खड़ा हूं,
तोड़ आ दुनिया के रस्मों की छतों को।

गो ज़ख़ीरा ज़ख़्मों का लेकर चला हूं,
देख हिम्मत, देख मत घायल परों को।

फ़स्ले-ग़ुरबत कुछ अमीरों ने बढाई,
लूट लेते हैं मदद के पानियों को।

ख़ुशियों के दरिया में ग़म की लहरें भी हैं,
सब्र की शिक्छा दो नादां कश्तियों को।

घर के भीतर राम की हम बातें करते,
घर के बाहर पूजते हैं रावणों को।

छत चराग़े-सब्र से रौशन है दानी,
जंग का न्योता है बेबस आंधियों को।

5 comments:

  1. बेहद्द खूबसूरत अशआर ...
    सारे ही मुकम्मल लगे हैं...
    शुक्रिया...!

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  2. "अदा"जी को बहुत बहुत धन्यवाद आप जैसे अदबजनों के +ve -ve
    टिप्पणीयों का सदा तलब गार रहूंगा।

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  3. छत्‍तीसगढ़ ब्‍लॉगर्स चौपाल में आपका स्‍वागत है.
    ईद व गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनांए.
    आरंभ
    गुरतुर गोठ

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  4. पारुल जी और संजीव तिवारी जी का स्वागत के साथ शुक्रिया।

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